” मेरे पापा !..श्रेया सुमन “
*”मेरे पापा !..श्रेया सुमन”*
*”ज़िन्दगी क्या है?..”*
“ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब ढूँढने में उम्र बीत जाती है। लेकिन आज मैं, श्रेया, 13 साल की हो चुकी हूँ और अब शायद ज़िन्दगी को थोड़ा-थोड़ा समझने की कोशिश कर रही हूँ।
मेरे पापा का दिनचर्या काफी टफ़ है। हर रोज़ सुबह जल्दी उठना, किताबों में गहरे उतरकर पढ़ाई करना, और दिनभर हॉलीवुड, बॉलीवुड और अब तो कोलीवुड के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं की फ़िल्मों का अवलोकन करना। उनके लिए यह सब एक आदत बन चुका है। पापा का शेड्यूल कितना भी बिजी हो, पर उनकी सबसे पसंदीदा चीज़—सोशल वर्क—कभी छूटती नहीं।
दिन हो या रात, पापा समय की सुइयों की तरह लगातार चलते रहते हैं। घर में एक आवाज़ हमेशा सुनाई देती है, “बॉबी, हॉस्पिटल जा रहा हूँ, इमरजेंसी है। खाना तुम लोग खा लेना, मैं लेट से आऊँगा।” या फिर, “आज मीटिंग है, हेल्थ कैंप लगवानी है, बच्चों के कोचिंग वाले से बात करनी है। शर्मा सर का बेटा IIT कानपुर में पढ़ता है, डॉ. पांडेय सर का बेटा डॉक्टर बन गया, और तोमर दा का बेटा IIT रुड़की में पढ़ता है। इन बच्चों को एग्जीक्यूटिव्स के बच्चों से मिलवाना है।”
बॉबी, यानी मेरी मम्मी। यह पापा का उन्हें बुलाने का प्यारा नाम है।
पापा अक्सर कहते हैं, “परिवर्तन ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सच है।” हाल ही में, मैंने उन्हें PTM के लिए मना करते हुए सुना। “बॉबी, तुम PTM अटेंड कर लो, मैं नहीं आ पाऊँगा।” मुझे सुनकर थोड़ा अजीब लगा। पापा का PTM मिस करना? ये पहली बार हो रहा था।
मुझे पता था कि PTM का मतलब है मेरी मम्मी से डाँट पड़ना। लेकिन अगर पापा वहाँ होते, तो बात अलग होती। वो बड़े ही कॉन्फिडेंस से मेरी टीचर से कहते, “मैडम, सब हो जाएगा। ये मेरी बेटी है!”
मुझे डांस और पेंटिंग का बड़ा शौक़ है। जब पापा घर पर होते हैं, तो मैं दिनभर अपने सपनों में जीती हूँ। वो मुझे पूरे ध्यान से देखते रहते हैं। मेरे और मेरे भाई युवराज (जिसे हम प्यार से चीकू कहते हैं) के लिए पापा सबसे तेज़ “क्विक सॉल्यूशन” हैं। लेकिन एक शर्त है—पापा की बॉबी घर पर न हो।
जैसे ही होमवर्क खत्म होता है, KFC, बर्नपुर क्लब, या फिर पिज़्ज़ा ऑर्डर करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। और ये सर्विस सुबह 11:00 बजे से रात 11:00 बजे तक चलती है।
पापा की एक आदत है—मम्मी को छेड़ने की। वो अक्सर कहते हैं, “बॉबी, तुम जर्मनी में पैदा हुई थी क्या?” लंबे समय तक मैं ये लाइन समझ नहीं पाई। एक दिन मैंने हिम्मत करके उनसे पूछा, “पापा, जर्मनी में पैदा होने का क्या मतलब है?” और वो मुस्कुराकर बोले, “क्योंकि हिटलर भी वहीं पैदा हुआ था!”
ओह माय गॉड, यही हैं मेरे पापा।
हमारे लिए रविवार सबसे अच्छा दिन होता है। ये पापा के ऑफ-डे का मतलब है, और हमारे लिए खुशियों का असली खज़ाना। लेकिन मज़ेदार बात ये है कि वो रविवार को भी सुबह जल्दी उठकर आधा सोशल वर्क निपटा आते हैं।
अगर कभी वो रविवार को देर से आते हैं, तो मम्मी का वही डायलॉग: “ये आदमी कभी नहीं सुधरेगा!”
पापा के पास हमेशा कुछ न कुछ सिखाने के लिए होता है। वो हंसते-हंसते कहते हैं, “सबसे बड़ी ताकत पढ़ाई में है। इसलिए बॉबी की बात हमेशा मानो। ज़िन्दगी जीना बेटा, बहुत टफ है। जमके पढ़ो और लिखो, जैसा बॉबी चाहती है।”
वाह! देखो, अपने दिल की बात भी उन्होंने कैसे बॉबी के नाम पर हमें समझा दी।
कल की ही बात है। पापा शाम चार बजे प्लांट से लंच के लिए आए। शायद कोई ब्रेकडाउन चल रहा था। चीकू ने कहा, “पापा, चलो बैडमिंटन खेलते हैं।” पापा बिना देर किए तैयार हो गए और बोले, “बॉबी, तब तक खाना गर्म करो।”
हम स्कूल से आते ही थक जाते हैं। लेकिन जैसे ही पापा प्लांट से आते हैं, बैडमिंटन शुरू हो जाता है। शायद पापा ऐसे ही होते हैं—हमेशा ऊर्जा से भरे हुए।
आजकल पापा अपने पापा जी (श्री सत्यनारायण दादा) और अपने मम्मी जी (श्रीमती सुशीला दादी) को बहुत याद करते हैं। अगर घर में कोई गलती हो जाए, तो वो मम्मी से कहते हैं, “बॉबी, तुम आजकल डांटती क्यों नहीं हो?” और जब मम्मी डांटती हैं, तो कहते हैं, “मेरे पापा सही कहते थे!”
हाल ही में घर में एक नया मुद्दा छिड़ा हुआ है—मेरा भविष्य। मैं इंजीनियर बनूँगी या डॉक्टर? मम्मी-पापा के बीच ये बहस गर्म होकर “हॉट डिस्कशन” में बदल चुकी है।
अभी तक, लगभग सहमति बन चुकी है कि मैं इंजीनियरिंग करूँगी। लेकिन सवाल है—अभी एडमिशन हो या अगले साल? मम्मी कहती हैं, अभी, लेकिन पापा कहते हैं, “नेक्स्ट ईयर। श्रेया अभी छोटी है।”
दूसरा सवाल है—ALLEN दुर्गापुर या आसनसोल? पापा ने साफ़ कह दिया है, “श्रेया ALLEN आसनसोल में पढ़ेगी।” लेकिन मम्मी का निर्णय अभी बाकी है।
मेरी ज़िन्दगी इन्हीं दो शख्सियतों के इर्द-गिर्द घूमती है—मेरे पापा और बॉबी। पापा से मैंने सीखा कि ज़िन्दगी जीने का असली मज़ा दूसरों की मदद करने में है। और बॉबी ने सिखाया कि अनुशासन और मेहनत से सबकुछ हासिल किया जा सकता है।
ज़िन्दगी क्या है?
मेरे लिए, ये पापा की हंसी, बॉबी का प्यार, चीकू से टकरार, और हमारे बीच की ये अनमोल यादें हैं। यही तो मेरी असली ज़िन्दगी है।”
कहानीकार: सुशील कुमार सुमन
अध्यक्ष, आईओए
सेल आईएसपी, बर्नपुर