Reader's Corner

शायद, यही “कलयुग” है!

*”शायद, यही “कलयुग” है!”*”हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ हर तरफ़ दौड़ है — दौड़ सफलता की, दौड़ दिखावे की, दौड़ तुलना की, दौड़ अपने ही अस्तित्व को साबित करने की। हर कोई खुश रहना चाहता है, पर क्या वास्तव में कोई खुश है? समय के साथ खुशी जैसे सिकुड़ती जा रही है, वह क्षणभंगुर हो गई है। किसी को कुछ पल के लिए खुश देखो, पर अगले ही क्षण किसी तुलना, किसी हार, किसी चिंता से वह मुस्कान लुप्त हो जाती है।पिछले दिनों पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि जिंदगी कितनी अनिश्चित है। आज है, कल नहीं। हमारे बीच से कई निर्दोष लोगों की जीवन रेखा महज कुछ क्षणों में मिटा दी गई। यह घटना इस क्रूर सच्चाई की याद दिलाती है कि असली मूल्य क्या है, और खुशी के वास्तविक स्रोत क्या हैं।आज का यथार्थ यही है कि खुशी का क्षण अब लंबा नहीं होता।

एक UPSC टॉपर की कहानी लीजिए — चार साल लगे टॉप करने में। पहले प्रयास में सफल होकर दूसरे प्रयास में और अच्छा किया, फिर भी इंटरव्यू में अपेक्षाकृत कम अंक मिलने से रैंक नीचे आ गई। कोई वापस आकर टॉपर से अधिक अंक लाया, पर रैंक नहीं मिली। कोई इंटरव्यू में सबसे ज्यादा नंबर लाकर भी सातवें पायदान पर रह गया। और अंत में, सब अंदर से असंतुष्ट — क्योंकि जिसे पहला स्थान मिला, वह भी सोचता है अगले साल क्या होगा।दूसरी तरफ़, किसी को तीन साल में प्रोमोशन मिल गया, वह अब अगले पद के लिए रास्ता खोल चुका है। जिनको नहीं मिला, वह निराश। मजे की बात ये कि जिनको मिला है, वे भी पूर्णतः संतुष्ट नहीं, उन्हें भी भविष्य की चिंता है। यानी दोनों पक्ष दुःखी हैं। फिर खुशी कहाँ है?

भौतिक जीवन में भी वही बात — किसी ने बड़ी कार खरीद ली, पर जल्द ही पता चलता है कि बाज़ार बदल गया है, और पड़ोसी ने कम पैसे में नई छोटी कार ली है। अब बड़ा कार वाला व्यक्ति खुद को मूर्ख समझने लगता है — “क्यों इतना खर्च किया?” — यानी न उस बड़े को सुकून, न उस छोटे को संतोष। संतुष्टि दोनों में नदारद है।आज ऐसा लगता है कि हर कोई दुखी है। कौन सुखी है, इसका कोई उत्तर नहीं है। विवाहों में, शुभ अवसरों में भी एक तरह का प्रतिस्पर्धा आ गया है

— किसका आयोजन बेहतर, किसकी सजावट शानदार, किसकी भीड़ ज़्यादा। और यह सब दिखावे की होड़ में बदल गया है। अब तो धर्मों में भी प्रतिस्पर्धा आ गई है — मेरा धर्म सर्वश्रेष्ठ, मेरी परंपरा सबसे उत्तम। ऐसा चिल्लाने वाले को धर्म की मूल भावना ही नहीं पता। सब भूल-भुलैया में भटक रहे हैं।राजनीति में देखिए — अब राजनीति सिर्फ जनसेवा की नहीं, बल्कि कर्तव्य-राजनीति और स्लीपर सेल राजनीति में बदल गई है। लोग पद के पीछे भाग रहे हैं, उद्देश्य के पीछे नहीं। सब माया-मोह में उलझे हैं।*

तो आखिर असली खुशी कहाँ मिलेगी?

प्राकृतिक नियमों को समझे बिना नहीं मिलेगी। सृष्टि का नियम है — जितनी अपेक्षा, उतना दुःख। संतोष में ही सुख है। जीवन की सीमाओं को स्वीकार करना और स्वयं के भीतर संतुलन पाना ही शाश्वत सुख की कुंजी है। जब तक व्यक्ति खुद से बाहर खुशी ढूँढ़ता रहेगा — औरों से तुलना में, सामाजिक स्थिति में, संपत्ति में, ब्रांडेड चीजों में — तब तक वह सिर्फ निराशा पायेगा।शिक्षा एक महान साधन हो सकता है, यदि उसमें दायित्व-राजनीति और व्यक्तिगत एजेंडा न हो। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि समझ और विवेक विकसित करना होना चाहिए। अगर यही शिक्षा, सच्ची मानवीय संवेदनाएँ पैदा करे — तो शायद हम उस राह की ओर लौट सकें जहाँ आत्मसंतोष संभव है।पर सवाल उठता है — आज हम वहाँ पहुँचे क्यों?क्योंकि संसाधनों तक अत्यधिक आसान पहुँच हो गई है। जो चीज़ें पहले दुर्लभ थीं, आज उपलब्ध हैं — लेकिन उस उपलब्धता ने संतोष नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी है। छोटी-छोटी बातों पर प्रतिस्पर्धा, हर बार यह साबित करने की कोशिश कि “I am the best.” — यही नई मानसिकता बन गई है।हमेशा खुद के बारे में सोचना — अपने विकास, अपने प्रदर्शन, अपनी छवि के बारे में — यह आत्म-केंद्रित सोच, सामूहिकता और परस्पर सौहार्द को समाप्त कर रही है। हम सफेद हाथी के पीछे भागते जा रहे हैं, यानी उन महत्वाकांक्षाओं के पीछे जिनका कोई अंत नहीं।डिजिटल दुनिया ने इस दौड़ को और तेज़ कर दिया है। सोशल मीडिया ने तुलना को और सशक्त कर दिया — किसका जीवन ज़्यादा रोचक दिख रहा है, किसके पास क्या है, किसका बच्चा टॉपर है, किसकी शादी शानदार थी — इस दिखावे के संसार ने आंतरिक शांति को निगल लिया है।मनुष्य की इच्छाएँ अब कभी खत्म नहीं होतीं — एक चाह पूरी होती है, दूसरी जन्म लेती है। यही “कलयुग” है — जहाँ सत्य, संतोष, और आत्मज्ञान सबसे कठिन चीज़ें बन गई हैं।इस युग में, जहाँ हर कोई दौड़ में है, खुशी का क्षण तेज़ी से मिटता जा रहा है। आज की पीढ़ी ‘माइलस्टोन’ को मनाती है, जीवन को नहीं। पहला माइलस्टोन — खुशी, फिर चिंता कि अगला क्या होगा। फिर अगला माइलस्टोन। इस अनंत चक्र में मनुष्य थक रहा है, और मनुष्यत्व भी।*खुशी तब मिलेगी जब हम स्वीकार करेंगे:*1. जीवन की सीमाएं हैं।2. तुलना का कोई अंत नहीं।3. संतोष ही सबसे बड़ा धन है।4. शिक्षा का उद्देश्य समझ और आत्मज्ञान है, न कि केवल नौकरी या सफलता।5. धर्म शांति का मार्ग है, प्रतियोगिता का नहीं।6. राजनीति का मतलब सेवा है, सत्ता नहीं।जब व्यक्ति इन बातों को समझेगा, तभी उसके भीतर स्थायी आत्मसंतोष उत्पन्न होगा — और वही आत्मसंतोष है असली खुशी।”खुशी क्षणभंगुर हो गई… क्या वक़्त आ गया…?” — यह केवल एक सवाल नहीं, एक चेतावनी भी है। एक आह्वान भी है कि समय आ गया है आत्मविश्लेषण का, आत्मजागरूकता का। यही जागरूकता हमें उस दिशा में ले जाएगी जहाँ न दौड़ होगी, न तुलना — बल्कि एक शांत मन और संतोष से भरा जीवन होगा। वही होगा सच्चा सुख — न क्षणभंगुर, बल्कि स्थायी।”*”लेखक: सुशील कुमार सुमन”*अध्यक्ष, आईओएसेल आईएसपी बर्नपुर

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Mr. Chandan | Senior News Editor Profile Mr. Chandan is a highly respected and seasoned Senior News Editor who brings over two decades (20+ years) of distinguished experience in the print media industry to the Bengal Mirror team. His extensive expertise is instrumental in upholding our commitment to quality, accuracy, and the #ThinkPositive journalistic standard.

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