प्रेमचंद जयंती पर विशेष ःकलम का सिपाही मुंशी प्रेमचंद
एक लेख
प्रकाश चन्द्र बरनवाल
‘वत्सल’, आसनसोल
आज मुंशी प्रेमचंद की जयंती है। जगह – जगह लोग उनकी मूर्तियों पर माल्यार्पण कर रहे हैं। उनकी लेखनी द्वारा समाज को प्रदत्त हिन्दी साहित्य के लेख, कहानी और उपन्यास की चर्चा कर रहे हैं, यह परिचर्चा चिरकाल से होती आ रही है। यह सत्य है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से मुंशी प्रेमचंद हमलोगों के बीच सदैव अमर रहेंगे। उनकी कहानियों का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। आजादी के पूर्व बिखरे समाज का चित्रण, यथार्थ की कसौटी पर उनका अमूल्य योगदान है। सरकारी महकमों, जमींदारों का आम जनजीवन पर अत्याचार, भूख और प्यास की तड़प, किसानों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था, रूढ़िवादी सोच के आधार पर पंडितों का आतंक, सबकुछ उन्होंने जिस सरलता के साथ अपनी कहानियों में रखा है, वह हमारे हिन्दी साहित्य की धरोहर है। बहुत सी बातें आज के परिप्रेक्ष्य में सटीक नहीं भी बैठतीं, किन्तु वर्तमान कोरोना के संकटकाल में हमने सम्पूर्ण भारतवर्ष में असंगठित मजदूरों की जो दुर्दशा देखी, वह हमें हमारे प्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद जी की यादों को ताजा कर देती है। असहाय, निरुपाय जब मजदूरों को अपने सर पर बोझ लादे चिलचिलाती धूप में हजारों मील की पैदल यात्रा करते देखा, छोटे-छोटे अबोध बच्चों को साथ घिसटते देखा, पैरों में छाले पड़ते देखा तो मुंशी प्रेमचंद जी का साहित्य आज के इस परिप्रेक्ष्य में जीवंत हो उठा। हमने बहुत उन्नति की है, किन्तु हमारे बीच एक ऐसा समाज अभी भी है जो सदैव उपेक्षित रहा है, जरा सा प्रतिकूल परिस्थिति होने पर ही उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो उठता है। आज भी हमारे हिन्दी के इस सम्राट की लेखनी उतनी ही प्रभावशाली है जितनी उनके जीवित काल में थी। आवश्यकता है कि इस देश का लोकतंत्र ऐसे दबे – कुचले लोगों को भी एक धरातल पर लाने का सार्थक प्रयास करे ताकि उनके हृदय में राष्ट्र के प्रति आत्मीयता का अभ्युदय हो। तभी इस लेखक के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।