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“ज़िंदगी और ख़्वाब !…” ‘सुमन’

सुशील कुमार सुमन की कलम से
ज़िंदगी का रिश्ता मौत से है, लेकिन ख़्वाब कभी मरते नहीं। वे मरने वालों को अमर कर देते हैं। यह कहानी है सूरज की, जो उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव सुल्तानपुर में एक गरीब परिवार में पैदा हुआ। सूरज का बचपन अभावों में बीता। उसके माता-पिता मजदूरी करते थे, और घर में बस एक भैंस ही उनका सहारा थी। आर्थिक तंगी के बावजूद, सूरज की पढ़ाई में गहरी रुचि थी। वह पढ़ाई में बेहद होशियार था, लेकिन उसके पास किताबें खरीदने के पैसे नहीं थे।
सूरज के घर के बगल में विक्रम नाम का एक लड़का रहता था। विक्रम एक अमीर परिवार से था, जिसके पास हर सुख-सुविधा थी, जो सूरज के पास नहीं थी। दोनों एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे और अच्छे दोस्त थे। लेकिन सूरज के पास किताबों का अभाव था। सूरज रात में विक्रम से किताबें उधार लेता और सुबह चार बजे उठकर होमवर्क पूरा कर लेता। विक्रम की पुरानी कॉपियों में होमवर्क करने के बाद, सूरज भैंस चराने निकल जाता।
सूरज की मेहनत धीरे-धीरे रंग लाने लगी। वह स्कूल में टॉप करने लगा, जिससे उसके क्लास टीचर, श्री नरेश प्रसाद, भी प्रभावित हुए। उन्होंने सूरज की मदद करनी शुरू कर दी और उसे अतिरिक्त समय में पढ़ाने लगे। सूरज ने मैट्रिक की परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में टॉप किया और उसे राज्य सरकार की ओर से स्कॉलरशिप मिलने लगी।



सूरज ने इंटरमीडिएट में भी टॉप किया, और 1959 में साइंस स्ट्रीम में पूरे राज्य में पहला स्थान हासिल किया। उसकी लगन और मेहनत का यह नतीजा था कि उसका आईआईटी प्रवेश परीक्षा में भी चयन हो गया। सूरज ने आईआईटी कानपुर से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और चार साल की कड़ी मेहनत के बाद उसे एक शानदार नौकरी मिल गई। 
लेकिन समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। सूरज ने जब अपने करियर की ऊँचाइयों को छुआ, तो उसके जीवन में एक खालीपन सा महसूस होने लगा। नौकरी के पांच साल पूरे होने तक सूरज को समझ में आने लगा कि जीवन के इस भागदौड़ में कहीं उसका असली मकसद खो गया है। ख़्वाब जो कभी उसकी जिंदगी की धड़कन थे, अब बेकार लगने लगे। उसे लगता कि उसकी जिंदगी ख़्वाबों के बिना अधूरी है। इस खालीपन से तंग आकर, सूरज ने अपनी नौकरी से छुट्टी ली और जिंदगी का असली मतलब तलाशने निकल पड़ा।

सूरज ने मुंबई की चकाचौंध को छोड़कर अपने गाँव सुल्तानपुर लौटने का फैसला किया। वहाँ पहुँचने के बाद, वह एक साधारण से किराए के घर में रहने लगा और खुद को लोगों से छिपाए रखा। उसने अपने पुराने शिक्षक, श्री नरेश प्रसाद, से भी अपनी पहचान छिपा ली। सूरज ने गाँव में देखा कि लोग अमीर हों या गरीब, सभी अपनी जिंदगी में खुश थे। लेकिन सूरज, जिसने दुनिया की हर सफलता को छू लिया था, अंदर से टूट चुका था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्यों वह अवसाद की ओर खिंचा चला जा रहा है।

एक दिन सूरज गाँव के मंदिर के पास बैठा हुआ था कि उसने एक बच्चा देखा, जिसका नाम सोनू था। सोनू का पिता नहीं था, और उसकी माँ सिलाई का काम करके घर चलाती थी। सोनू की माँ का सपना था कि उसका बेटा एक दिन आईएएस बने। उसकी आँखों में अपने बेटे के लिए जो ख्वाब थे, वही उसकी असली खुशी थे। यह देखकर सूरज को एहसास हुआ कि जिंदगी जीने के लिए ख्वाब कितने जरूरी हैं।
सूरज को अपना बचपन याद आया। उसे लगा कि सोनू की माँ के ख्वाब ही उसे ज़िंदगी की सारी परेशानियों से लड़ने की हिम्मत देते हैं। सूरज को समझ आ गया कि उसकी निराशा का कारण यह था कि उसने ख्वाब देखना छोड़ दिया था। उसी दिन सूरज ने फैसला किया कि वह अब सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी ख्वाब देखेगा।

सूरज ने *‘हमारा संकल्प’* नाम से एक एनजीओ की नींव रखी, जिसका मकसद गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना था। उसने अपने सारे संसाधन इस एनजीओ के लिए झोंक दिए। सूरज दिन-रात मेहनत करने लगा। उसने गाँव-गाँव जाकर बच्चों और उनके माता-पिता को समझाया कि शिक्षा ही उनका भविष्य बदल सकती है।
सूरज का यह नया ख्वाब धीरे-धीरे आकार लेने लगा। ‘हमारा संकल्प’ ने कई गरीब बच्चों की ज़िंदगी बदल दी। सूरज ने अपने पुराने दोस्तों और साथियों को भी इस मुहिम से जोड़ा। उसकी मेहनत का फल यह हुआ कि आज ‘हमारा संकल्प’ हजारों बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रहा है और उनके ख्वाबों को नई उड़ान दे रहा है।
एक दिन सूरज को सरकारी सम्मान के लिए बुलाया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने सूरज को शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार देने का फैसला किया था। सूरज ने अपने माता-पिता और परिवार के साथ यह सम्मान प्राप्त किया।
पुरस्कार समारोह के बाद सूरज अपने पुराने गुरु, श्री नरेश प्रसाद से मिलने गया। गुरुजी ने सूरज को देखकर कहा, “मुझे तुम पर हमेशा से गर्व था, लेकिन आज तुमने सच में सिद्ध कर दिया कि इंसान को कभी अपने ख्वाबों से हार नहीं माननी चाहिए।” सूरज की आँखों में आँसू थे। उसने गुरुजी के पाँव छुए और कहा, “गुरुजी, ख्वाब मरते नहीं। वे हमें ज़िंदगी जीने का मकसद देते हैं।”

सूरज की कहानी ने पूरे राज्य में एक नई प्रेरणा का संचार किया। लोग उसे देखने और सुनने आते थे। वह जहां भी जाता, लोग उसकी बातें सुनकर खुद को प्रेरित महसूस करते। सूरज ने शिक्षा की इस मुहिम को एक राष्ट्रीय अभियान बनाने का ख्वाब देखना शुरू कर दिया।
वहीं, सोनू, जिसकी माँ का सपना था कि वह आईएएस बने, अब सूरज के एनजीओ के जरिए पढ़ाई कर रहा था। सूरज ने सोनू को भी अपने ख्वाबों के साथ जोड़ लिया था। वह सोनू को हर कदम पर प्रेरित करता और उसके सपनों को सच करने में उसकी मदद करता।
एक दिन सूरज ने सोनू को बताया, “बेटा, ख्वाब देखना जरूरी है। वे हमें आगे बढ़ने की हिम्मत देते हैं। जब भी तुम्हें लगे कि सब कुछ खत्म हो गया है, अपने ख्वाबों को याद करना। वे तुम्हें एक नई राह दिखाएंगे।”
सोनू ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली। उस दिन सूरज ने महसूस किया कि उसके ख्वाबों ने न सिर्फ उसकी, बल्कि कई और ज़िंदगियों को भी बदल दिया है। सूरज की कहानी आज भी हजारों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उसने सिखाया कि जिंदगी के उतार-चढ़ाव में भी ख्वाबों की लौ बुझने नहीं देनी चाहिए।

सूरज की इस यात्रा ने उसे सिखाया कि जिंदगी का असली मकसद ख्वाबों को जीना और दूसरों के ख्वाबों को हकीकत में बदलना है। आज सूरज अपने परिवार के साथ एक खुशहाल जिंदगी जी रहा है और *‘हमारा संकल्प’* बुलंदियों को छू रहा है। उसके ख्वाब आज भी जिंदा हैं और हजारों लोगों को जीने का हौसला दे रहे हैं। सच में, ज़िंदगी जीने के लिए ख़्वाबों से भरी ज़िंदगी होना जरूरी है।

(लेखक सेल आईएसपी के अधिकारी हैं। श्री सुशील कुमार सुमन इस्को ऑफिसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं )

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