ASANSOL-BURNPUR

“रंगों की बयार: बर्नपुर क्लब की यादगार होली”

“सूरज की पहली किरण के साथ ही बर्नपुर शहर में होली का उत्साह उमड़ पड़ा। हर गली, हर मोहल्ला रंगों में रंगने को तैयार था। हल्की सी गुलाल की महक हवा में घुल चुकी थी, और हलवाई की दुकानों से आती मालपुआ और ठंडाई की खुशबू मन को रोमांचित कर रही थी।

बर्नपुर क्लब हमेशा से त्योहारों की जान रहा है, लेकिन इस बार यह होली कुछ खास थी। क्लब के नवनिर्वाचित माननीय महासचिव सुशील कुमार सुमन के लिए यह सिर्फ एक और त्योहार नहीं, बल्कि एक सपना पूरा होने जैसा था। वर्षों से वह इसी दिन की कल्पना कर रहे थे—एक ऐसा आयोजन, जहां हर कोई रंगों की तरह घुल-मिल जाए, जहां न कोई बड़ा हो, न छोटा, न कोई अधिकारी, न कर्मचारी—बस इंसान और उनके रिश्ते।




सुबह 11:00 बजे बर्नपुर क्लब की दरवाजे खुले और देखते ही देखते हर तरफ रंगों की बौछार होने लगी। बच्चे, बुजुर्ग, युवा, महिलाएं—सब अपने-अपने अंदाज़ में होली का आनंद ले रहे थे।
कोई गुलाल उड़ा रहा था, कोई पिचकारी से रंग बरसा रहा था, और कोई डांस फ्लोर पर रंगों में सराबोर होकर थिरक रहा था।



“बुरा न मानो, होली है!” की आवाज़ हर तरफ गूंज रही थी।
क्लब के लॉन में कुछ नई-नवेली जोड़ियाँ थीं, जो शरमाते हुए रंगों में डूब रही थीं। उनकी होली को देखकर लग रहा था कि उनके जीवन में अभी रंगों की असली बौछार बाकी है।

कुछ लोग सिर्फ अपनी ही धुन में थे—होली, और सिर्फ होली। शायद होली ज़िंदगी जैसी ही होती है—धीरे-धीरे रंग चढ़ता है और फिर उतनी ही धीरे-धीरे उतरता भी है।


जब घड़ी ने 12:00 बजे का संकेत दिया, तो असली होली स्विमिंग पूल के आसपास शुरू हुई।

सुशील कुमार सुमन के लिए यह जगह खास थी। 2012 से वह इसी पूल में होली खेलते आ रहे थे, और हर साल कुछ न कुछ अप्रत्याशित जरूर होता था। लेकिन इस साल उनके लिए सबसे बड़ी बात यह थी कि वह अब इस आयोजन के कर्णधार थे—बर्नपुर क्लब के माननीय महासचिव।

“अरे, सुशील सर! अब आपकी बारी है!”

अचानक कुछ युवा अधिकारियों ने सुशील को घेर लिया और देखते ही देखते उन्हें रंगीन पानी से भरे स्विमिंग पूल में धक्का दे दिया!

छपाक!!

चारों तरफ हंसी-ठिठोली गूंज उठी। सुशील भी ठहाके लगाकर हंस पड़े। आखिर यही तो होली थी—हर बंधन से मुक्त, हर भेदभाव से परे।

अब तो जैसे होली ने और भी ज़ोर पकड़ लिया। लोग पूल में कूदने लगे, गुलाल के गुब्बारे फोड़ने लगे, और पानी में रंगों का इंद्रधनुष बन गया।

जैसे-जैसे घड़ी की सुइयाँ 3:00 बजे की ओर बढ़ीं, वैसे-वैसे रंग भी धीरे-धीरे उतरने लगे।

लोग अब शांत होकर ठंडाई पी रहे थे, मालपुआ का स्वाद ले रहे थे, और बीते कुछ घंटों की मस्ती को याद कर मुस्कुरा रहे थे।

किसी ने कहा, “होली भी ज़िंदगी जैसी ही होती है। शुरू में संकोच होता है, फिर रंग चढ़ता है, और फिर धीरे-धीरे सब कुछ सादा हो जाता है।”

सुशील ने मुस्कुराकर कहा, “इसलिए हमें होली के हर पल को खुलकर जीना चाहिए—बिल्कुल ज़िंदगी की तरह!”

शाम तक जब सब अपने-अपने घर जाने लगे, तो सुशील ने एक नज़र अपने क्लब पर डाली।

यह सिर्फ एक त्योहार नहीं था, यह एक भावना थी।

उन्होंने मन ही मन कहा, “मेरा सपना था कि जब मैं बर्नपुर क्लब का महासचिव बनूँगा, तब त्योहारों में हर किसी को अपनत्व का एहसास होगा। आज लगता है कि मैं सफल रहा।”

“थैंक गॉड, इस साल सब कुछ ठीक रहा।” उन्होंने राहत की सांस ली।

होली अब भी शहर में थी, लेकिन उसके रंग मन में उतर चुके थे।

“फागुन की बयार चली, बृज में मची उमंग,
राधा-कृष्ण के प्रेम संग, छाया रंगों का रंग।
हर गली-गली गुलाल उड़े, हर आंगन प्रेम की गूँज,
बाँके बिहारी संग नाचे बृज, हर कोई होली में पूर।”


होली सिर्फ एक दिन का त्योहार नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है—जहाँ हमें हर रंग को अपनाना है, उसे जीना है, और फिर जब वह उतर जाए, तो नई होली के इंतजार में मुस्कुराना है।

“आप सभी को होली की शुभकामनाएँ! आपके जीवन में भी होली के रंगों की तरह खुशियाँ आती रहें!”

कहानीकार: सुशील कुमार सुमन
अध्यक्ष, आईओए
सेल आईएसपी बर्नपुर

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