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” ड्यूटी पॉलिटिक्स: एक गिरती हुई श्रमशक्ति की करुण कथा “

सबसे पहले, “आप सभी को श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।”*यह दिन न केवल श्रमिकों के अथक परिश्रम को नमन करने का अवसर है, बल्कि एक आत्ममंथन का भी समय है – कि हम कहां खड़े हैं और किस दिशा में जा रहे हैं। आज का भारत विकास की दौड़ में निरंतर भाग रहा है, लेकिन इस रफ्तार में उसकी श्रमशक्ति – जो उसकी रीढ़ है – धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। इस लेख का उद्देश्य यही समझना है कि हमारी श्रमशक्ति क्यों कमजोर हो रही है, कब यह प्रक्रिया शुरू हुई, और कैसे ‘ड्यूटी पॉलिटिक्स’ नामक एक अदृश्य महामारी ने इसे जकड़ लिया।

श्रमशक्ति: राष्ट्र की असली ताकत

भारत जैसे देश की प्रगति में सबसे अहम भूमिका श्रमिकों की रही है। खेत हो या कारखाना, कोडिंग हो या खदान, निर्माण हो या सेवा क्षेत्र – हर क्षेत्र में श्रमिकों की मेहनत ने देश को आगे बढ़ाया है। लेकिन आज जब हम मजदूरों, कर्मचारियों और अधिकारियों की बात करते हैं, तो एक असंतुलित, तनावग्रस्त और अविश्वासी माहौल सामने आता है। यह माहौल आकस्मिक नहीं है। इसकी जड़ें ‘ड्यूटी पॉलिटिक्स’ नामक उस संस्कृति में हैं जो धीरे-धीरे संगठनों को भीतर से खोखला कर रही है।

ड्यूटी पॉलिटिक्स क्या है?

ड्यूटी पॉलिटिक्स वह प्रक्रिया है जिसमें कर्तव्य का पालन दिखावे के रूप में किया जाता है, जबकि अंदर ही अंदर व्यक्ति अपने स्वार्थ, सत्ता और छवि निर्माण में लिप्त होता है। यह राजनीति धीरे-धीरे ईमानदार, मेहनती और प्रणालीगत कार्यकर्ताओं को हाशिए पर धकेल देती है और संगठन की आत्मा को भ्रष्ट करती है।

कब और कैसे शुरू हुआ बदलाव?

1980 और 1990 के दशक तक, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में अनुशासन, प्रक्रिया, और श्रमशक्ति के प्रति सम्मान की भावना थी। लेकिन उदारीकरण के बाद निजीकरण, संविदा संस्कृति और राजनीतिक हस्तक्षेपों ने संगठनों की कार्यसंस्कृति को झकझोर दिया। धीरे-धीरे, अधिकारियों और कर्मचारियों की चयन प्रक्रिया में भी योग्यता की जगह नेटवर्क, चमचागिरी और ग्रुपिज़्म ने लेना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप, ड्यूटी का वास्तविक अर्थ – निष्ठा, ज़िम्मेदारी और पारदर्शिता – खोने लगा और दिखावटी, अवसरवादी और गुटबाज़ी आधारित संस्कृति ने उसे बदल दिया।

ड्यूटी पॉलिटिक्स के चरण

1. *प्रवेश चरण* – नया अधिकारी या कर्मचारी बेहद विनम्रता से प्रवेश करता है। वह अपनी कार्यनिष्ठा, ज्ञान और सहभागिता से सबका ध्यान खींचता है। 2. *सांस्कृतिक समावेश* – वह लोगों की भावनाओं को समझता है, संगठन की प्रणाली को आत्मसात करता है, और तेजी से लोकप्रियता हासिल करता है। 3. *सिस्टम की गिरफ्त* – एक बार विश्वास जीत लेने के बाद वह धीरे-धीरे प्रणाली को अपने अनुसार ढालना शुरू करता है। 4. *गुट निर्माण* – अलग-अलग व्हाट्सएप ग्रुप, चाय बैठकों और निजी बैठकों के माध्यम से अपने समर्थकों का गुट तैयार करता है। 5. *मानसिक दबाव और चरित्रहनन* – जो लोग सिस्टम के पक्षधर होते हैं, उन्हें धीरे-धीरे साइडलाइन करना, उनके खिलाफ नकारात्मक प्रचार करना, और उन्हें मानसिक रूप से कमजोर करना शुरू होता है।

6. *संकट की शुरुआत* – उत्पादन में गिरावट, कर्मचारियों में अविश्वास, मनोबल में कमी और अंदरूनी टकराव शुरू हो जाता है। 7. *संकट का विस्फोट* – अंततः संगठन परफॉर्मेंस के मोर्चे पर पिछड़ने लगता है, और जनता, सरकार व निवेशकों का विश्वास डगमगाने लगता है।

ड्यूटी पॉलिटिक्स के प्रभाव

1. *ईमानदार कर्मियों की आत्महत्या* – जो कर्मी सच्चाई से कार्य करते हैं, वे या तो खुद को अलग कर लेते हैं या मानसिक अवसाद में चले जाते हैं। 2. *संगठनात्मक आत्मविश्वास की कमी* – टीमवर्क की भावना खत्म होती है। हर कोई सिर्फ अपनी छवि और स्थिति बचाने में लग जाता है। 3. *श्रमिकों का मोहभंग* – मज़दूरों और कर्मचारियों को लगता है कि मेहनत का कोई मोल नहीं। वे या तो निष्क्रिय हो जाते हैं या संगठन छोड़ देते हैं। 4. *अंदरूनी गृहयुद्ध* – समूहों के बीच मतभेद, आरोप-प्रत्यारोप और प्रशासनिक निर्णयों में पक्षपात शुरू हो जाता है।

5. *उत्पादन में गिरावट* – मानसिक असंतुलन, तालमेल की कमी और नेतृत्वहीनता के चलते उत्पादन और सेवा की गुणवत्ता गिरने लगती है। 6. *प्रतिभा का पलायन* – योग्य युवा ऐसे संगठनों से दूरी बनाने लगते हैं। *श्रद्धांजलि नहीं, समाधान चाहिए* आज जबकि हम श्रमिक दिवस मना रहे हैं, हमें यह समझना होगा कि केवल पुष्प अर्पण और भाषणों से काम नहीं चलेगा। श्रमशक्ति की रक्षा के लिए वास्तविक सुधार जरूरी हैं।

*संभावित समाधान और सुझाव*

1. *कर्तव्य आचार संहिता* – प्रत्येक संगठन में एक स्पष्ट ड्यूटी कोड होना चाहिए, जिसमें कर्तव्यों की परिभाषा, आचरण और पारदर्शिता के मानदंड तय हों। 2. *गुटबाज़ी विरोधी नीति* – आंतरिक ग्रुपिज़्म की पहचान कर उसके विरुद्ध कार्रवाई की स्पष्ट नीति हो। 3. *गोपनीय फीडबैक सिस्टम* – कर्मचारियों को एक सुरक्षित मंच मिले जहां वे गुटबाजी या उत्पीड़न की शिकायत कर सकें। 4. *मनोवैज्ञानिक सहायता केंद्र* – मानसिक तनाव से जूझ रहे कर्मचारियों को परामर्श और सहयोग दिया जाए।

5. *प्रदर्शन आधारित मूल्यांकन* – लोकप्रियता नहीं, बल्कि परिणामों और सहयोग भावना के आधार पर पदोन्नति और मान्यता दी जाए। 6. *स्वतंत्र ऑडिट और निरीक्षण* – कार्य संस्कृति, संचार समूहों और निर्णय प्रणाली की समय-समय पर समीक्षा हो। 7. *प्रशिक्षण और पुनर्गठन* – नेतृत्व को ड्यूटी पॉलिटिक्स की पहचान और नियंत्रण की ट्रेनिंग दी जाए।

*श्रमशक्ति की पुनर्स्थापना*

ड्यूटी पॉलिटिक्स केवल एक प्रबंधन समस्या नहीं है, यह एक नैतिक और सांस्कृतिक संकट है। यह उस नींव को खोखला कर रही है जिस पर हमारा पूरा उत्पादन तंत्र टिका है। अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो यह कैंसर न केवल संगठनों को बल्कि पूरे राष्ट्र के औद्योगिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर देगा। “आज श्रमिक दिवस पर हम सबको यह संकल्प लेना चाहिए”कि हम अपने-अपने संगठनों में इस अदृश्य बीमारी के विरुद्ध आवाज़ उठाएंगे। हम नीति, प्रक्रिया और नैतिकता का पुनर्पुनर्निर्माण करेंगे। हम अपने सच्चे श्रमिकों, अधिकारियों और कर्मचारियों को वह सम्मान, सहयोग और स्थान देंगे जिसके वे वास्तविक हकदार हैं। क्योंकि अंततः – *”जब श्रमशक्ति हारी, तब राष्ट्र रुका। जब श्रमशक्ति जगी, तब भारत चला।

“*”लेखक: सुशील कुमार सुमन”अध्यक्ष, आईओएसेल आईएसपी बर्नपुर

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