” कवि प्रदीप: मौत ज़िन्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत है “
“हिंदी गीत-साहित्य के आकाश में कवि प्रदीप का नाम एक ध्रुवतारे की भांति चमकता है। एक ऐसा नाम जो केवल शब्दों का जादूगर नहीं था, बल्कि भारत के जनमानस की आत्मा को स्वर और शब्द देता था। जिनकी कलम से निकले गीत केवल मनोरंजन नहीं थे, वे राष्ट्रचेतना के उद्घोषक थे, मानवता के पुजारी थे, और जीवन-मरण के गूढ़ रहस्यों को साधारण भाषा में प्रकट करने वाले संतकवि थे। “मौत ज़िन्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत है”—यह पंक्ति कवि प्रदीप की कवित्व चेतना की उस चरम अनुभूति की घोषणा है जहाँ मृत्यु भी सौंदर्य बन जाती है।जब हम यह पंक्ति सुनते हैं कि “मौत ज़िन्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत है”, तो यह केवल एक शाब्दिक प्रयोग नहीं है, यह उस गहन दार्शनिक विचारधारा की पराकाष्ठा है जहाँ मृत्यु, जो सामान्यतः भय और शोक का कारण होती है, वह जीवन की संकीर्णताओं से मुक्ति का प्रतीक बन जाती है।



कवि प्रदीप ने अपने जीवन में यह दृष्टिकोण केवल लिखा नहीं, जिया भी।उनकी कविताओं और गीतों में जो गहराई, वैराग्य और आदर्शवाद मिलता है, वह उन्हें आम फिल्मी गीतकारों से अलग करता है। *‘चल अकेला चल अकेला’* से लेकर *’देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान’* तक, उनके हर गीत में एक चेतावनी है, एक उपदेश है, और सबसे अधिक, एक समाधान है।
“ऐ मेरे वतन के लोगों”* —इस गीत को सुनते हुए आज भी आँखें नम हो जाती हैं। इस गीत को सुनकर स्वयं प्रधानमंत्री पं. नेहरू रो पड़े थे। यह गीत केवल एक गीत नहीं, एक संकल्प है, एक श्रद्धांजलि है, और एक प्रेरणा भी। यह वह गीत है जो दर्शाता है कि कैसे *एक कवि, राष्ट्र के सपूतों के बलिदान को अमरता प्रदान कर सकता है।*कवि प्रदीप ने ‘किस्मत’ (1943) फिल्म में “दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है” जैसा क्रांतिकारी गीत लिखा, जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने देशद्रोह माना। उन्हें अज्ञातवास में जाना पड़ा। पर यह भी सिद्ध हो गया कि *कलम की ताकत तलवार* से कहीं अधिक होती है।
‘नास्तिक’ फिल्म में उन्होंने लिखा— *”देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान”* —यह पंक्ति भले ही एक नास्तिक पात्र द्वारा कही गई हो, लेकिन इसके पीछे छिपा दर्द, नैतिक पतन के प्रति आक्रोश और ईश्वर से जवाबदेही की माँग, कवि प्रदीप के भीतर छिपे धर्मनिष्ठ मानवतावादी को प्रकट करती है। उनके गीतों में जो धार्मिकता है, वह किसी एक संप्रदाय की नहीं बल्कि सर्व-मानवता की थी।कवि प्रदीप के गीत केवल देशभक्ति या भक्ति तक सीमित नहीं थे, वे समाज की कुरीतियों पर भी कठोर प्रहार करते थे।
उन्होंने लिखा— *”आज के इस इंसान को ये क्या हो गया, इंसानियत का दुश्मन इंसान हो गया”* —यह पंक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1970 के दशक में थी।आज जब इंसान अपनी जड़ों से कटता जा रहा है, मूल्य विखंडित हो रहे हैं, और समाज स्वार्थ, जातिवाद, हिंसा और भ्रष्टाचार के गर्त में जा रहा है, ऐसे में कवि प्रदीप के गीत राह दिखाते हैं। वे केवल आलोचना नहीं करते, वे भीतर झाँकने का आग्रह करते हैं। वे यह नहीं कहते कि केवल सत्ता बदलो, वे कहते हैं— *”मन बदलो, दृष्टिकोण बदलो, सोच बदलो।”**“तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली”* —इस गीत में एक ऐसा भक्त दिखाई देता है जो निर्मल श्रद्धा के साथ भगवान के द्वार पर खड़ा है। यह भाव कवि तुलसीदास के रामचरितमानस की भक्ति परंपरा की झलक देता है।*“मैं तो आरती उतारूं रे संतोषी माता की”* —‘जय संतोषी माँ’ फिल्म का यह गीत लोगों की श्रद्धा का प्रतीक बन गया। हजारों की भीड़, सिनेमा हॉल में पूजा करती थी, जब यह गीत चलता था। यह कवि प्रदीप की लेखनी की वह शक्ति है जिसने आस्था को भी लोकप्रिय संस्कृति में जीवंत कर दिया।
*“चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा”* —यह केवल एक अकेलेपन की स्वीकृति नहीं, यह एक आत्मिक यात्रा का आह्वान है। जब मनुष्य को जीवन की भौतिकता निरर्थक लगने लगे, तब वह अकेले चलने को ही श्रेष्ठ समझता है। यह पंक्तियाँ आत्मनिरीक्षण और साधना का मार्ग प्रशस्त करती हैं।इस गीत में जीवन की निरंतरता है, लेकिन साथ ही एक विरक्ति भी। यह वो विरक्ति है जो कर्म से विमुख नहीं करती, बल्कि उसे निष्काम बनाती है। कवि प्रदीप इस गीत के माध्यम से गीता के उस उपदेश को ही कह रहे हैं जो अर्जुन को दिया गया— *“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
*अब आते हैं उस मूल पंक्ति पर— *“मौत ज़िन्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत है।”* *”यह वह भाव है जो कबीर की “मरते मरते जग मुआ, मेरे मन का मरण न मुआ” * की परंपरा में आता है। यह भाव बताता है कि मृत्यु, यदि उद्देश्यपूर्ण हो, यदि आत्मसमर्पण के साथ हो, यदि राष्ट्र, समाज या ईश्वर के लिए हो, तो वह सौंदर्य है।कवि प्रदीप का यह दृष्टिकोण उन्हें *”आत्मा की कविता’* लिखने वाला कवि बना देता है। मृत्यु उनके लिए अंत नहीं, एक मोक्ष की स्थिति है।
शायद यही कारण है कि उन्होंने *‘ऐ मेरे वतन के लोगों’* जैसा गीत लिखा—जहाँ मरने वालों को अमरता का दर्जा दिया गया।कवि प्रदीप को जब 1997 में *दादा साहब फाल्के पुरस्कार* मिला, तब देश ने उनके योगदान को औपचारिक मान्यता दी। लेकिन वे उससे बहुत पहले लोगों के दिलों में अमर हो चुके थे। उन्होंने 1700 से भी अधिक गीत और 72 फिल्मों में काम किया, लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने *जनभावनाओं को स्वर दिया।**आज जब संगीत व्यवसायिक हो गया है, गीतों में आत्मा कम और लय ज़्यादा है, ऐसे समय में कवि प्रदीप की साधना और उनके गीतों की सादगी, अर्थवत्ता और गहराई एक प्रकाशस्तंभ की तरह हमें प्रेरित करती है।*कवि प्रदीप का संपूर्ण जीवन एक समर्पित ऋषि की भांति था—जिन्होंने समाज को चेताया, झकझोरा, संबल दिया और अंत में अपने पीछे ऐसा काव्यसाहित्य छोड़ गए जो युगों तक जीवित रहेगा। उन्होंने हमें सिखाया कि *मृत्यु एक भय नहीं, बल्कि एक सुंदर सत्य है* —यदि जीवन आदर्शों के लिए जिया गया हो।*“मौत ज़िन्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत है”* —यह कोई विरक्त सन्यासी की नहीं, एक कर्मठ राष्ट्रकवि की घोषणा है, जो जीवन की अंतिम साँस तक कलम चलाता रहा। उनके शब्द अमर हैं, उनका भाव अमर है, और उनकी प्रेरणा भारत की आत्मा में सदा-सदा के लिए अंकित हो चुकी है।*
जय हिंद।*- *”लेखक: सुशील कुमार सुमन”*अध्यक्ष, आईओएसेल आईएसपी बर्नपुर