Reader's Cornerसाहित्य

“सीढ़ी बांस की…”

“आज माँ की याद बहुत गहराई से आ रही है। शायद किसी और दिन ये एहसास इतना नहीं होता, लेकिन कल जो हुआ, उसने रोहन को बचपन के उन दिनों में लौटा दिया जो अब सिर्फ यादों में बसे हैं।कल रोहन अपने ससुराल गया था। वहाँ तीसरी मंज़िल पर जैसे ही वो ऊपर चढ़ा, उसकी नज़र एक पुरानी झोपड़ी के बगल से छत तक जाती हुई एक बांस की सीढ़ी पर पड़ी। वह पल में वहीं रुक गया… आँखें झपकते ही उसे अपने गाँव का घर याद आ गया— *”सीढ़ी बांस की”।

*उसने देखा कि कैसे उस झोपड़ी के ऊपर छत तक बांस की सीढ़ी लगी थी। न जाने क्यों, वह सीढ़ी उसके दिल को छू गई। वो जैसे समय में पीछे चला गया। याद आने लगा, माँ—चंद्रभानु देवी—हमेशा आंगन के कोने में एक मजबूत बांस की सीढ़ी रखती थीं। उसी सीढ़ी से छत तक जाया जाता था। घर में पक्की सीढ़ियाँ नहीं थीं, लेकिन बांस की वो सीढ़ी जैसे घर की जान थी।गाँव में बिजली का जाना आम बात थी। जैसे ही लाइट कट होती, पूरा परिवार “सीढ़ी बांस की” के सहारे छत पर चढ़ जाता। छत पर लेटकर तारे गिनते, चाँद को निहारते और माँ से चंदा मामा की कहानियाँ सुनते। माँ की आवाज़ में जादू था। हर कहानी में कोई ना कोई सीख होती थी, लेकिन बच्चे तो बस रोमांच में डूब जाते।खासकर गर्मियों में, जब रात को नींद नहीं आती थी, हम सब छत पर जाते। माँ आम, जामुन, पपीता, और लौकी तोड़ कर लातीं। हम सब मिलकर उन्हें काटते और खाते। हर फल में माँ का स्वाद होता था, हर कहानी में उसका प्यार। उस समय की मासूमियत, अपनापन, और सरलता आज की जिंदगी में कहीं खो गई है।

“सीढ़ी बांस की” सिर्फ एक साधन नहीं थी, वो एक जुड़ाव था। बांस की सीढ़ी से चढ़ते वक्त बच्चों की आँखों में सपने होते थे। छत पर पहुँचते ही मानो दुनिया खुल जाती थी। कभी तारों को निहारना, तो कभी चंद्रमा से बातें करना।और यह बांस की सीढ़ी सिर्फ छत तक पहुँचने का जरिया नहीं थी। माँ इसे जानवरों को चारा चढ़ाने में, टीन की छत पर रखे बर्तनों को उतारने, या आंगन की दीवार पर चढ़कर आम के पेड़ तक पहुँचने में भी इस्तेमाल करती थीं। यह बहुउपयोगी थी।

आज रोहन PSU में इंजीनियर है। एक संपन्न जीवन जीता है। उसके दो प्यारे बच्चे हैं—अबोध और आराध्या। पत्नी ऐश्वर्या एक शिक्षिका हैं। जीवन बहुत व्यवस्थित है, लेकिन कहीं कुछ अधूरा है। उस दिन ससुराल में जब लाइट चली गई, तो सभी छत पर चले गए। अचानक रोहन ने देखा कि एक बांस की सीढ़ी लगी हुई थी। वही पुराना दृश्य, वही एहसास।छत पर बैठकर रोहन अपने बच्चों को “सीढ़ी बांस की” की कहानी सुनाने लगा। अबोध ने पूछा, “पापा, क्या वो सीढ़ी बहुत डरावनी थी?”रोहन मुस्कुराया, “नहीं बेटा, वो हमारी दोस्त थी। उसी से हम आकाश छूते थे। चंद्रमा के पास जाते थे।”आराध्या बोली, “पापा, क्या मैं भी उस सीढ़ी पर चढ़ सकती हूँ?”रोहन ने कहा, “कभी गाँव चलेंगे तो ज़रूर दिखाऊँगा। अभी तो कहानी में ही चढ़ लो।”तभी ऐश्वर्या बोलीं, “आज कितनी ठंडी हवा है, छत पर कितना सुकून है… बिजली ना होने के बावजूद कितना शांत और सुंदर लग रहा है सब कुछ।”रोहन ने आसमान की ओर देखा।

वही चाँद, वही तारे, वही हवा… और दिल में बसी माँ की यादें। उसे महसूस हुआ कि शायद ज़िंदगी की सबसे सच्ची खुशी उन्हीं सरल चीज़ों में है, जो अब खोती जा रही हैं।उसने मन ही मन माँ को याद किया, “माँ, तुम्हारी वो बांस की सीढ़ी आज भी मेरी ज़िंदगी की सबसे ऊँची ऊँचाई है। उसी से मैं इस मुकाम तक पहुँचा हूँ। तुम्हारा साथ, तुम्हारी कहानियाँ, और वो ‘सीढ़ी बांस की’ कभी नहीं भूल सकता।”उस रात छत पर बैठा रोहन, अपने बच्चों के साथ चाँद को निहारता रहा। जैसे उस चाँद में माँ की मुस्कान झलक रही हो। एक सीढ़ी जो ज़मीन से जोड़ती थी, आसमान की ओर ले जाती थी… वही थी— *”सीढ़ी बांस की”।*Love you, “सीढ़ी बांस की”… तुमने हमें ऊँचाई सिखाई, सादगी सिखाई, और माँ की गोद का एहसास दिया।” लेखक: *”सुशील कुमार सुमन”*अध्यक्ष, आईओएसेल आईएसपी, बर्नपुर

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Mr. Chandan | Senior News Editor Profile Mr. Chandan is a highly respected and seasoned Senior News Editor who brings over two decades (20+ years) of distinguished experience in the print media industry to the Bengal Mirror team. His extensive expertise is instrumental in upholding our commitment to quality, accuracy, and the #ThinkPositive journalistic standard.

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