ASANSOLसाहित्य

नागरिक और नागरिकता

Prakash burnwal

प्रकाश चन्द्र बरनवाल
‘वत्सल’, आसनसोल

      एक नागरिक का परिचय, परिभाषा उसकी प्रासंगिकता उसके जन्मस्थली से बनती है, या फिर जिस देश से उसके माता-पिता जुड़े हुए होते हैं, उस देश से होती है। यदि कोई 

व्यक्ति अपना वतन छोड़कर किसी दूसरे देश में प्रवास करना या रहना चाहता है तो उसे अपने देश के साथ – साथ, उस देश से भी जहाँ वह प्रवास करना या रहना चाहता है, वैधानिक आदेश प्राप्त करना होता है, जिसे ‘वीसा’ कहते हैं।
परन्तु यहाँ नागरिक की परिभाषा से मतलब व्यक्ति विशेष के कर्त्तव्य और दायित्व अनुपालन से है, मनुष्य के भीतर पल रहे विद्वेष, कलुशता एवं दायित्वहीन आचरण से है। आज भारतवर्ष को आजाद हुए सात दशक से ऊपर हो रहे हैं। हमने अपने देश के युवाओं को वह संस्कार दिया ही नहीं जिससे वह राष्ट्र के प्रति समर्पित एक जिम्मेदार नागरिक के प्रतिरूप परिचिति बना सकें। हर जगह व्याप्त भ्रष्टाचार और वोट की कलुषित राजनीति के दलदल में आकंठ डूबे राजनेताओं के चरित्र ने कतिपय हमारे युवा संतति के विचारों को रुग्ण कर दिया है। आज युवाओं का चिंतन केवल अधिकाधिक धन उपार्जन करना ही रह गया है और उनके माता-पिता की इच्छा भी यही कि हमारा बेटा कैसे अधिकाधिक धन कमाए, इसके लिए उसे कैसे अधिकाधिक डिग्रियाँ प्राप्त हों ? कैसे उनका लाल प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं में सर्वाधिक नम्बरों से उत्तीर्ण हो सके, इसी चेष्टा में वे दिन – रात लगे रहते हैं। गुरुजनों के प्रति नैतिक दायित्व और पारिवारिक संस्कार से हमारे बच्चे अपरिचित रह जाते हैं, और इसी कारण जब वे पुस्तक अर्जित शिक्षा से किसी अच्छी कम्पनी में, अच्छे पद पर चयनित होते हैं तो उनके मन में अपने माता-पिता के प्रति या छोटे भाई बहन के प्रति कोई उत्तरदायित्व निर्वहन का भाव नहीं उपजता। माता-पिता अपना सारा संचयन बेटे को अच्छी डिग्री कैसे मिल सके, इसकेे लिए महंगी से महंगी शिक्षण संस्थान से उसे मानकता प्राप्त कराने हेतु तन – मन – धन से सहयोग करते हैं, और जैसे ही बेटा शिक्षा पूरी कर, नौकरी प्राप्त कर, शहर या देश से दूर किसी कम्पनी में कार्य करने हेतु चला जाता है, तो अपनी व्यस्तता के कारण वह अपने माता-पिता या परिवार के प्रति दायित्व को पूरा करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यंत्रवत वह किसी कम्पनी में उस कम्पनी की उत्पादकता की वृद्धि हेतु दिन – रात लगा रहता है, परन्तु जिनके कारण उसने गंतव्य तक पहुंचने का अवसर पाया, उनके प्रति उसकी उदासीनता देखने लायक होती है। हमारी भारतीय संस्कृति, पारिवारिक दायित्व अनुपालन की सामूहिक जिम्मेदारी के संस्कार से पूरी तरह से अन्जान होने के कारण उनके अन्दर उत्तरदायित्व निर्वहन नहीं कर पाने हेतु संकोच भी नहीं होता, जिसके मुख्य दोषी हम स्वयं हैं। हमने अपने बच्चों का लालन-पालन ऐसे ही परिवेश में किया होता है। ” बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय ” । एक समय तक उपेक्षाओं का दंश झेलने के पश्चात, माता-पिता को अपनी गल्ती का एहसास तो होता है, पर ” अब पछताए होता क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। ” अवशेष जीवन को एक कुढ़न के साथ गुजार देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। कहने का तात्पर्य जैसे चरित्र का निर्माण किया है, वैसे ही बच्चे देश के नागरिक बनेंगे।
कुछ माता-पिता जो आमदनी के अभाव में अपने बच्चों का प्राइवेट स्कूल में दाखिला नहीं दिला पाते, उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, जहाँ स्तरीय शिक्षा उपलब्ध नहीं होने के कारण बच्चे शिक्षा के मानदंडों पर खरे नहीं उतरते। शिक्षक को अपने तलब से मतलब है, जो माह के शेष में, बगैर किसी जिम्मेदारी निर्वहन के भी उन्हें प्राप्त होना ही है, इसी कारण स्कूल के बच्चों के प्रति वे हमेशा उदास रहते हैं। बच्चों के समुचित प्रशिक्षण के प्रति उदासीनता उनके नैतिक चरित्र का पतन भी है, जो बच्चे आज जैसा पाएंगे वही तो भविष्य में परोसेंगे। इन स्कूलों में परिवेश इतना प्रदूषित होता है कि बच्चे असमय जवान हो जाते हैं, और तरह – तरह की वर्जनाओं की अवहेलना कर कभी – कभी इतने उग्र हो जाते हैं, जिसकी समाज कल्पना भी नहीं कर सकता।
इसी क्रम में मैं एक उद्धरण यूं. एस. ए. अमेरिका गणराज्य से आपके समक्ष रखना चाहूँगा। अमेरिका कुछ राज्यों का एक समूह है। कभी यह बारह राज्यों का समूह था, जो आज पचास से ऊपर राज्यों को अपने अन्दर समाहित किए हुए है। यहाँ हर परिवार को स्थानीय सरकारी स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाना पड़ता है, चाहे वह कितना ही बड़ा व्यापारी हो, सरकारी अधिकारी हो, सभी गार्जियन अपने – अपने स्थानीय क्षेत्र के स्कूलों में ही अपने बच्चों को पढ़ा सकेंगे, यहाँ तक कि अपने क्षेत्र के आस – पास कुछ दूरी पर अवस्थित स्कूल में भी वे अपने बच्चों का दाखिला नहीं करवा सकते। सरकार की ओर से भोजन की उत्तम व्यवस्था रहती है। वहाँ सभी अभिभावक चुस्त हैं तो शिक्षक भी कम नहीं। कदम – कदम पर आपका मूल्यांकन होता है। पर यहाँ सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बेटे-बेटियों को प्राइवेट स्कूलों में भेजा करते हैं, ताकि उनके बच्चों का भविष्य ठीक हो, यह कैसी विडम्बना है ? अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जो संस्कार हमारे बच्चों में निरूपित होता है, वह हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाता, बच्चों में पाश्चात्य सभ्यता की झलक मिलना स्वाभाविक है, इसके लिए जितने हमारे बच्चे जो भविष्य के नागरिक हैं दोषी हैं, उससे कहीं ज्यादा हमारी व्यवस्था या हम स्वयं जिम्मेदार हैं।
हम अपनी अग्रज पीढ़ी को जिस प्रकार आचरण करता देखते हैं, तदनुरूप हमारे बच्चे भी अपने को ढालने की चेष्टा करते हैं। यदि हम जीवन भर भ्रष्टाचार में लिप्त रहकर अकूत संपत्ति पैदा किए हैं, तो हमारे बच्चे भी वैसा ही करेंगे। अत्यधिक भौतिक सुखों की चाह में दु:ख मिलना स्वाभाविक है। इसी कारण पढ़े – लिखे बच्चे भी परिवेश के कारण प्रदूषित वातावरण में गलत आचरण करने के आदी हो जाते हैं, तो फिर एक अच्छे नागरिक की आशा हम उनसे कैसे रख सकते हैं ? आगत् पीढ़ी के अंदर सूक्ष्म चिंतन, अनुभूति या भाव परिवेश के अनुसार स्वतः प्रतिष्ठित होते हैं।
इस देश की प्रदूषित राजनीति में या तो हर कोई एक दूसरे को छल रहा है अन्यथा हर कोई दूसरे के द्वारा छला गया प्रतीत होता है। राजनीति में मानवीय संवेदना यहाँ अन्तर्भूत नहीं होती, इसी कारण अमीरी और गरीबी की खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। जब तक अनैतिकता से अर्जित वैभव और वंचना को सम्मान मिलता रहेगा, यह देश सुधर नहीं सकता। चारित्रिक निर्माण हो नहीं सकता। उत्पीड़ितों, वंचितों के अन्तस्थल में, एक गहन मार्मिक अविस्मरणीय दरिद्रता एक हृदय विदारक चीख के रूप में अवस्थित है। यदि वह पागल, अराजक, निरर्थक, अतार्किक वाक्य बोलता है तो कहीं न कहीं यह उसके मन-मस्तिष्क का अन्तर्द्वन्द्व है। यह भावनाओं, संवेदनाओं की विडम्बनात्मक परिणिति है। जीवन की तमाम विरोधाभासों को अभिव्यक्त करने का भाषिक हुनर भले ही राजनेताओं के लफ्जों में हो, पर आज का युवक हर शोषण को अच्छी तरह समझता है। एक समय बाद जब अचानक ही शोषक व्यक्ति अपने आचरण के कारण आँधी और मूसलाधार बारिश से घिर जाता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पतवार टूट चुका है। मस्तूल वंचितों के तूफानी झकोरों में छिन्न – भिन्न हो गया है। झूठ का भव्य – प्रासाद पल भर में धराशाई हो जाता है।
वक्त आ गया है कि हम अपने आचरण द्वारा एक स्वस्थ परिवेश का निर्माण यथार्थ के धरातल पर ईमानदारी से करें। जिन परिवारों को न्यूनतम सुविधाएँ आजीवन उपलब्ध नहीं हुई हैं, उनके अन्दर उम्मीद और विश्वास की नई रोशनी प्रदीप्त करें, साथ ही साथ जो दोषी हैं, उन्हें कठोर दंड मिले, जिन्होंने भ्रष्टतंत्र को अपनाकर अकूत संपदा बना लिया है, उनको किए की सजा मिले। न्यायतंत्र मजबूत हो और समुचित दंड का प्रावधान समय सापेक्ष हो।

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