साहित्य

तूफान एक्सप्रेस की यात्रा

By feature desk

यात्रा वृत्तान्त
प्रकाश चंद्र बरनवाल
प्रकाश चंद्र बरनवाल

आज से कोई पन्द्रह वर्ष पूर्व की एक रेल (TRAIN) यात्रा का संस्मरण आज मन को हठात याद आ गया।
मुझे अपने एक परिचित के साथ दिल्ली (DELHI) के पास गाजियाबाद जाने की आवश्यकता पड़ी, कारण उसकी प्रतिभाशाली बेटी की शादी मैंने ही जोर देकर अपने मित्र के इंजीनियर बेटे से करवाई थी।

संयोग से विवाह के पश्चात मेरी मुलाकात इस परिचित व्यक्ति से नहीं हुई। हठात एक दिन उनसे मुलाकात हुई तो मैंने बिटिया का समाचार जानना चाहा।

उन्होंने व्यथित होकर बिटिया के प्रति हो रहे अन्याय, दुर्व्यवहार के बारे में जानकारी दी। मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैंने उसी समय दिल्ली जाने का मन बना लिया। उन्होंने कहा कि वे दो टिकटों का रिजर्वेशन जाने के लिए करवा लेते हैं। मैं महानुभाव की आर्थिक अवस्था को जान रहा था, अतः मैंने उन्हें हमारे टिकट बनाने के लिए मना कर दिया और उन्हें अपना टिकट बनाने को कहा।

उन्होंने थ्री टायर में अपना रिजर्वेशन करवाया और मैंने ए सी थ्री में अपना टिकट बनवाया।

गाड़ी थी तूफान एक्सप्रेस। कहने को तूफान किंतु बहुत ही धीमी गति और तमाम छोटे – बड़े स्टेशनों पर रुकती हुई ट्रेन चली जा रही थी।

कहानी का परिदृश्य यहीं से शुरू होता है। हमारी बोगी ट्रेन का अंतिम कम्पार्टमेन्ट था। हमारे साथ एक बुजुर्ग बंगाली महिला सामने वाली बर्थ पर यात्रा कर रही थीं।


तूफान ट्रेन बहुत लम्बी है, इस कारण हमारी‌ बोगी अक्सर प्लेटफॉर्म के बाहर ही रह जाया करती थी। मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता था, कारण पत्नी ने ढेर सारा भोजन, नाश्ता रास्ते के लिए दे दिया था, किन्तु सामने वाली महिला को उनकी बेटी द्वारा रानीगंज स्टेशन (हमारे स्टेशन से एक स्टेशन पहले) पर कुछ दिया जाना था, जो किसी कारण वश वो नहीं दे पाई।

अब उनकी व्यग्रता देखते बनती थी। मैं कुछ जानता नहीं था, इस कारण मैंने उनसे बातचीत कर पहले कुछ आत्मीयता बनाई, फिर उनसे अनुनय विनय कर कहा, आप हमारी मातृतुल्य हैं, मेरे पास इतना भोजन है जो दो व्यक्तियों के लिए प्रर्याप्त है, आप बिल्कुल संकोच न करें और हमारे साथ भोजन में हिस्सेदारी निभाएँ।

इथर लगातार उनकी बेटी का फोन आ रहा था, उसे अपने आप पर गुस्सा और अफसोस भी आ रहा था, बारम्बार उन्हें सावधानी की हिदायत दी जा रही थी, महिला ने एकबार जवाब में कह भी दिया कि हमारी चिंता छोड़ दो, मुझे एक बेटा मिल गया है, जो हमारी हर आवश्यकता का खयाल रखता है, इस बात पर उनकी बेटी का सशंकित होना स्वाभाविक था, पश्चात मैंने उनसे फोन लिया और अपना परिचय विस्तृत रूप से उन्हें बतलाया, तब जाकर वह कुछ आश्वस्त हुईं।

इस क्रम में एक दो बातें हुईं। मैं यात्रा के दौरान कुछ न कुछ डायरी में लिखता जा रहा था, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम सारे रास्ते क्या लिख रहें हों ? मैंने कहा अपने मन की बातें लिख रहा हूँ।

उन्हें मेरी लगन देखकर आश्चर्य होता था। गाड़ी चल रही है या नहीं मुझे उससे कोई मतलब नहीं था, मैं तो अपनी लेखनी में रमा था। एक बड़े स्टेशन पर मैं उतरा और दो जगह गर्म नाश्ता लेकर आ गया, उन्होंने नाश्ता एक शर्त के साथ करना स्वीकार किया कि अगली बार मैं कुछ भी खरीदूँ तो पैसा वो देंगी।


हमारी गाड़ी छः घंटे लेट थी। मुझे गाजियाबाद उतरना था, मैंने उनका सारा सामान व्यवस्थित कर उनका चरण स्पर्श कर इस हिदायत के साथ विदाई ली कि अब और वो नहीं सोएंगी, कारण एक – दो स्टेशनों के बाद ही उनका गंतव्य स्टेशन आने वाला है………!!
इस तरह हमारी यात्रा पूरी हुई।

प्रकाश चन्द्र बरनवाल
‘वत्सल’ आसनसोल

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