साहित्यिक परिवेश के निर्माण में शिक्षण संस्थानों की भूमिका
प्रकाश चन्द्र बरनवाल
‘वत्सल’ आसनसोल



"साहित्यिक परिवेश के निर्माण में शिक्षण संस्थानों की भूमिका" की परिचर्चा के क्रम में हम यहाँ मूल रूप से दो तरह के साहित्य की चर्चा करेंगे, एक हिन्दी भाषियों के लिए मातृभाषा हिन्दी, उसके साथ - साथ केन्द्र सरकार द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा की मान्यता और दूसरी अहिन्दी भाषियों के लिए उनकी अपनी राज्यस्तरीय मातृभाषा के साथ जुड़े हमारे बच्चों का भविष्य।
वस्तुतः जब हम वर्तमान समाज व्यवस्था के साथ शिक्षा को जोड़कर देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी - भाषी छात्र हों या अहिन्दी - भाषी, दोनों के प्रति वर्तमान समाज में कुछ ज्यादा ही उपेक्षाएँ हो रही हैं। हम अपने संस्कार, अपनी मातृभाषा, अपने साहित्य या अपनी राजभाषा के प्रति वो सम्मान नहीं रखते जो हमें रखना चाहिए, और इसी उपेक्षा का दंश झेलती हमारी अपनी भाषा की गरिमा, साहित्य, संस्कृति, संस्कार को हम भूलते जा रहे हैं और उपजते असंस्कार की ओर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं, जिसमें न तो परिवार की गरिमा, प्रतिष्ठा और न आचरण संरक्षित होता दिखता है। आज ज्ञान का माध्यम विकसित समाज की अवधारणा और उपलब्धियों के अनुरूप अवशेष समाज के बीच भी बस केवल एक ही भाषा को माना जा रहा है, जिसके कारण हमारा गौरवशाली साहित्य और उसका अतीत दिन - प्रतिदिन गर्त में उपेक्षित होता जा रहा है।
आज सम्पूर्ण विश्व द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है, नेट के माध्यम से हम एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं और हमारी संतति राष्ट्र के साथ - साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रही है, इसी कारण हमारी परम्पराएँ पाश्चात्य की धुरी पर घूमने लगी हैं। ऐसे वातावरण में प्रगतिशील देशों के समक्ष, आर्थिक रूप से कमजोर देशों के नागरिकों का एक बड़ा आकर्षण है उनकी भाषा या सम्पर्क की भाषा को अपना जीवन आधार बनाकर आगे बढ़ना, जिससे उनके अपने साहित्य का अस्तित्व विनष्ट होने की कगार पर खड़ा दिखाई पड़ता है, जो भविष्य के लिए घातक भी है। इस समस्या को दूर करने हेतु गम्भीर आत्ममंथन की आवश्यकता है। खासकर राजनीति के शीर्ष विन्दुओं पर विराजमान उन तमाम नेतृत्व से चाहे वो पक्ष में हैं या विपक्ष में, उन्हें एकजुट होकर देश की प्रांतीय भाषा या राजभाषा के प्रति उपेक्षित विचारों को त्वरित विराम देते हुए हमारे शिक्षण संस्थानों में राज्यस्तरीय भाषा या राजभाषा से जुड़े हिन्दी साहित्यकारों को अधिकाधिक ससम्मान प्रतिष्ठित कर आने वाली पीढ़ियों को इस संग्राम से जुड़ने हेतु उत्प्रेरित करना होगा। वर्तमान समय की यह नितान्त आवश्यकता है। और यह तभी संभव होगा जब हमारे अपने साहित्य, अपनी मातृभाषा या राजभाषा से जुड़े विद्यार्थियों, शोधार्थी छात्र - छात्राओं को इस प्रक्रिया से जुड़कर चलने में अपना भविष्य सुरक्षित दिखाई देगा। जब तक हम अपनी उत्पादकता को आर्थिक उन्नयन के मूल से, उसके पायदान से प्रभावी रूप से जोड़कर फलित होते नहीं देखेंगे, तब तक हमारी आगत पीढ़ी को उनके अपने साहित्य से या हिन्दी साहित्य से जुड़ने की प्ररेणा नहीं मिलेगी। छात्र - छात्राओं को अपना भविष्य उनकी अपनी भाषा या राजभाषा के साहित्य में दिखलाई पड़ना चाहिए। आने वाले समय में साहित्य की सेवा करने वाले लोगों को, उसमें पारंगत व्यक्तित्व को ससम्मान समाज में कैसे प्रतिष्ठा मिले, इस हेतु राज्य सरकारों या केन्द्रीय सरकार को महती भूमिका निभानी होगी, भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषाओं से चाहे वह राज्य स्तरीय हो या फिर हमारी राजभाषा से जुड़ने वाले नागरिकों को विभिन्न आयामों से जोड़कर, उनका भविष्य सुरक्षित दिखाई पड़े, ऐसा उनके मन में प्रस्थापित करना होगा।
आज के दिन इस देश में यथार्थ में हर भाषा ही उपेक्षा का दंश झेल रही है, तदनुरूप उससे जुड़े प्राचार्य भी अपनी सक्षमता का उपयोग उसके समुचित विकास हेतु नहीं कर पा रहे हैं, स्वयं को उपेक्षित अनुभव कर रहे हैं, कारण अधिकाधिक हमारे मेधावी बच्चे इस भाषा से जुड़कर चलने में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं देख रहे। अतः हमें अपने साहित्य को संरक्षित रखने के वास्ते एक प्रतिबद्धता के साथ इससे जुड़े लोगों के बीच रोजगार सृजन करने की आवश्यकता है, ताकि उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित दिखाई दे।
इस देश में प्रचलित संस्कार, समाज, भाषा, संस्कृति में कहीं न कहीं समन्वय है। परस्पर एक - दूसरे की भाषा, शब्द कहीं न कहीं साहित्य में प्रयुक्त भी होते हैं, हम जुड़े हुए हैं। अतः कोई भी व्यक्ति जो अपनी भाषा और साहित्य के विस्तार को लेकर गवेषणा कर रहा है, उसके अध्ययन हेतु अपने बहुमूल्य समय का योगदान कर रहा है, दिन - रात प्रचेष्टा में लगा हुआ है तो उसके भविष्य को सुरक्षित रखते हुए उसे सम्मानपूर्वक जीवन जीने की प्ररेणा उसके अंतःकरण में दिखलाई पड़ना चाहिए।
आज दुर्भाग्यवश जिस विदेशी भाषा - साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देकर हमारा आपका परिवार, हमारे बच्चे आगे बढ़ रहे हैं, नए - नए आयाम प्रस्थापित कर रहे हैं, धन - ऐश्र्वर्य, आर्थिक स्वतंत्रता अर्जित कर रहे हैं, उसकी तुलना में अपनी मातृभाषा, अपने साहित्य से अभिरुचि रखने वाले, स्वाध्याय से जुड़े हुए लोग उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं, उनके ससम्मान जीवनयापन हेतु, उनके उत्साहवर्धन हेतु हमें कारगार व्यवस्था बनानी होगी, अन्यथा साहित्य का विकास असम्भव है। संसार के विभिन्न देशों में आप पाएंगे कि लोग अपनी राष्ट्रीय भाषा के प्रति सम्मान, रखते हैं, उनके हृदय में अपनी मातृभाषा, अपने साहित्य के प्रति सम्मान झलकता है। वे विदेशी भाषा सीखते तो हैं, पर अपनी मातृभाषा का यथेष्ट ज्ञान और मान भी रखते हैं। नौकरी में विदेशी भाषा की कम जानकारी से उन्हें ग्लानि का सामना नहीं करना होता और केवल अपनी भाषा में ही जानकारी होने के कारण, उन्हें नौकरी से वंचित नहीं किया जाता, कारण उसकी अपनी राष्ट्रभाषा में ही सारे काम - काज कार्यालयों में होते हैं। उन्हें अपनी भाषा में अध्ययन से नौकरियाँ मिलती हैं, इसलिए वे अपनी भाषा के प्रति अभिरुचि रखते हैं, उसमें अपना भविष्य सुरक्षित देखते हैं।
अतः विश्लेषण के अवशेष में मैं यही कहना चाहूँगा कि यदि हमें अपनी शिक्षण संस्थानों को, हमारे साहित्य को, हमारे संस्कार को संरक्षित रखना है, भविष्य की संकल्पनाओं में साहित्य को संजीवित रखना है तो आगे बढ़कर अपनी भाषा, संस्कृति, समाज, साहित्य, शिक्षा के गौरवशाली अतीत को याद करते हुए प्रांतीय स्तर पर दैननदिन प्रयोग में आने वाली भाषा को तथा हिन्दी भाषा को केंद्रीय कार्यालयों से ससम्मान जोड़ते हुए अनिवार्य रूप से स्वीकार्य बनाना होगा और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारोक्ति देकर समस्त कार्य हिन्दी में करने की बाध्यता स्वीकार करनी होगी, तभी देश में साहित्यिक परिवेश का सुन्दर वातावरण बनेगा, सशक्त पथ निर्माण होगा और हमारे शिक्षण संस्थानों से जुड़े हुए प्राध्यापक और उर्वर धरा का निर्माण कर सकेंगे।
